Thursday, February 24, 2011

मानव की अगली पीढी: साइबोर्ग

            चर्चित वैज्ञानिक क्रेग वेन्टर के कुछ समय पहले कृत्रिम कोशिका के निर्माण की घोषणा के बाद मानव प्रकृति सम्बन्धॊं पर एक नयी बहस शुरु हो गयी है| भले ही उन्होंने नयी कोशिका का निर्माण नहीं किया है फिर भी इस तरह का प्रयोग मानव के भविष्य पर गहरा प्रभाव डालेगा| कृत्रिम  जीवन की रचना के इतर भी विज्ञान की कई अन्य दिशाऒं में शॊध कार्य जारी है, जिस पर कि बहस होना ना सिर्फ़ महत्वपूर्ण है बल्कि आवश्यक भी हॊ पडा है|
     लन्दन में रीडिंग विश्वविद्यालय के साइबर्नेटिक्स विभाग में प्रोफ़ेसर केविन वारविक भी उन वैज्ञानिकों की श्रॆणी में रखे जा सकते हैं, जो कि अपनॆ अनुसन्धान के द्वारा प्रकृति और मानव के बीच के रिश्ते की परिभाषा बदल रहे हैं| अगर उनकॆ अनुसन्धान पर नज़र डाली जाये तो उनके अनुसन्धान कॊ दो स्तरॊं में देखा जा सकता है| साइबोर्ग पर अनुसन्धान के क्रम में, शुरुआत २४ मई,१९९८ से उन्हॊनॆ अपनॆ शरीर में ही खाल के नीचे एक  RFID  ट्रान्समिटर लगा कर की थी| ट्रान्समिटर इम्प्लान्टॆशन का प्रमुख उद्देश्य यह जांचना था कि इस तरह के ट्रान्स्मिटर चिप को शरीर आसानी से स्वीकार करता है या नहीं? यह भी कि इस तरह की चिप से क्या शरीर अर्थवान सिग्नल प्राप्त करके उनके अनुसार प्रतिक्रिया दे पाता है या नहीं? इस चिप की सहायता से वे अपने आस-पास लगे कम्प्यूटर नियन्त्रित  यन्त्रॊं को सिर्फ़ सॊचकर चला सकते थे| केविन वारविक ने उस समय के अनुभवॊं के बारे में लिखा है:- जब सुबह-सुबह मैं चिप के साथ, रीडिंग विश्वविद्यालय के साइबर्नेटिक्स विभाग पहुँचा तो परदे और खिड्कियाँ अपने आप खुल गयॆ,  कम्प्यूटर्स स्वतः चालू हो गये यहां तक कि कम्प्यूटर्स ने मुझॆ हैलॊ बोला|उन्होने लिखा कि जब उस चिप को मेरे शरीर से निकाल दिया गया मैं अपनॆ आप को पहले की अपेक्षा कम शक्तियों वाला मह्सूस कर रहा हूँ| इसी दिशा में दूसरा प्रय़ोग हुआ १४ मार्च २००२ कॊ, रीडिंग विश्वविद्यालय के ही एक  डॊक्टर मार्क गैसोन की सहायता से| इस बार केविन वारविक ने अपने बाँये हाथ में एक चिप को सर्ज़री के दौरान लगाया और चिप की  सहायता से अपने तत्रिका तन्त्र को कम्प्युटर से जोड लिया| इस तरह वे नील हर्बिसन के बाद दुनियाँ के सबसे महत्वपूर्ण साइबोर्ग बन गये|

     साइबोर्ग उस मानव या जीव को कहा जा सकता है, जो कि अपनी शारीरिक या मानसिक क्षमताऒं में वृद्धि के लिये टैक्नोलोजी का सहारा लेता हो| लेकिन चश्मा जैसे यन्त्र पहनने वाले को साइबोर्ग नहीं कहा जा सकता क्यॊंकि इसमें किसी भी तरह से साइबर्नेटिक्स या कम्प्यूटर्स का इस्तेमाल नहीं है| विशेषज्ञॊं का ये मानना है कि साइबोर्ग मानव तक्नीक का  ऐसा संगम है, जिसमें यान्त्रिक स्थिति में किये गये परिवर्तनॊं को शारीरिक या मानसिक प्रतिक्रियायॊं से सम्बद्ध किया जा सके| ठीक उसी तरह जैसे कम्प्यूटर को इंटरनेट से जोड्कर कम्प्यूटर की क्षमता में काफ़ी वृद्धि कर दी जाती है|वर्तमान के साइबोर्ग, मानव के दिमाग का मशीन के साथ संगम हैं| केविन वारविक ने जब स्वयं को चिप के सहारे कम्प्यूटर से जोडा तो मानव की शक्तियॊं के विकास का एक अध्याय शुरु हो चुका था| केविन वारविक के तन्त्रिका तन्त्र को इंटरनेट से कोलम्बिया विश्वविद्यलय, न्यूयॊर्क में जोडा गया और रीडिंग विश्वविद्यालय लन्दन मे रखे रोबोट को भी इंटरनॆट से जोडा गया| इस प्रक्रिया के सम्पन्न होने के बाद केविन अपने हाथ को जिस तरह घुमाते उसी तरह से रॊबॊट भी घुमाता| यहाँ तक कि जब ऐसी ही चिप उनकी  पत्‍नी ने लगा ली और वे जब इन्टर्नॆट के ज़रिये एक दूसरे से जुडते, अपनी भावनायें बिना बोले आपस में बाँट पाते| इसे उन्होंने टॆलीपेथी के जैसा कुछ कहा| वे बिना भाषा के अपने विचार बाँट रहे थॆ| इंटरनेट से जुड जाने पर उनकी याद्दाश्त में अप्रत्याशित वृद्धि हो गयी थी| कुछ समय के बाद केविन वारविक ने चिप अपनी बाँह से अलग कर ली|
     अगर ध्यान से देखा जाये तो इस तरह के आविष्कार दुनिंयाँ में तमाम तरह की शारीरिक और मानसिक कमज़ॊरियॊं वाले लोगों के लिये वरदान की तरह हैं| हम जानते हैं कि वैज्ञानिक हाथ पाँव से लेकर दिल के पेसमेकर तक के कृत्रिम यंत्र बना चुके हैं| अब तक दिमाग ही एक ऐसी संस्था है जिसे कि पूर्ण रूप से बनाना अभी बाकी है| अगर हम सिंथेटिक दिमाग नहीं बना सकते और इसके स्थान पर कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले कम्प्यूटर्स का इस्तेमाल बिना किसी समस्या के कर सकते है तो कोइ बुरी बात नहीं है|  साइबोर्गॊं की मेडीसिन के क्षेत्र में उल्लेखनीय भूमिका हो सकती है| अन्ध्त्व, बहरापन से लेकर सीज़ोफ़्रेनिया और अल्ज़ाइमर जैसे रोगों का इलाज़ इस तकनीक की सहायता से कियॆ जाने के प्रयास किये गये हैं और शुरुआती सफ़लता भी मिली है| साइबोर्ग के अम जीवन मे आ जाने पर स्कूलॊं मे पढाई के मायने बदल जायेंगे| शिक्षा व्यवस्था कॊ एक बार फिर से निर्मित करना पडेगा| बडी बडी सूचनायें याद करना सेकेन्ड का काम हो जायेगा| ये आविष्कार एक नवजात की तरह है जिसके चिक्ने पांव देखकर उसके भविष्य के बारे मे बोलना जल्दबाज़ी होगी|
     यहाँ पर कुछ समय ठहरकर यह भी सुनिश्‍चित कर लेना चाहिये कि हर एक नयी खॊज अपने साथ कई नयी ज़िम्मेदारियाँ लेकर आती है| अगर उसका इस्तेमाल उन ज़िम्मेदारियोँ को दरकिनार करते हुए किया जाता है तो बहुत ही कल्याण्कारी खोज विनाश का आधार बन जाती है| आज जब चारॊं ऒर पूँजी का बोलबाला है, बाज़ार पूरी तरह से अनियन्त्रित हो चुका है, ऐसे में नये आविष्कारॊं कॆ सही इस्तेमाल की सम्भावना बहुत ही कम हो जाती है| साइबोर्ग पीढी को पोस्ट-ह्यूमन पीढी माना जा रहा है| उत्‍तर- मानव पीढी क मतलब है कि चॆतना का शरीर मे ओर्गॆनिज़्म की तरह होना न कि ऒर्गन की तरह होना| साइबोर्ग से सम्बन्धित अब तक के सबसे विश्वस्यनीय दस्तवेज़ लिखने वाली डॊना हारावॆ साइबोर्ग मेनीफ़ेस्टो में लिखती है कि साइबोर्ग मानवता के अन्तिम बिन्दु होंगे; और मानवीय सह्जीवन के भी| वहीँ वैज्ञानिक गुस्तएरसन कहते हैं सबसे बडी चिंता इस बात की है कि चीज़ें नियन्त्रण के बाहर हो चुकीं है, हो सकता है कि हमारा विनाश उसी टैक्नोलोज़ी के द्वारा हो जिसका हमने आविष्कार किया है| चिंता जायज़ है क्यॊंकि जिस तरह से अभी जब यह साइबोर्ग टेक्नोलोज़ी अभी शैशव अवस्था मे है और इसके सेना और युद्धॊं मे प्रयोगों की बात की जा रही है अगर ऐसे रोबोट जो कि न्य़ूयॊर्क से संचालित होकर दुनियाँ के किसी हिस्से मे दिये गये आदेशॊं का पालन कर सकते है, परमाणु बमॊं से भी ज़्यादा खतरनाक सिद्ध होंगे|
   अंततः , दुनियां भर में जिस तरह सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व पूंजी के आगे नतमस्तक है, वैज्ञानिकॊं को अपने आविष्कारों के सकारात्मक प्रयॊगॊं के प्रति और समाज से सरॊकारॊं के प्रति स्वयं को और अधिक सचॆत और सतर्क बनाना होगा| साथ ही जनता को भी एक हद तक जागरुक होकर आविष्कारॊं से जुडी ज़िम्मेदारियों को समझना होगा| एक परमाणु बम से जहाँ कई नस्लें तबाह की  जा सकती है वहीं इसी तकनीक की मदद से अनगिनत घरॊं को रॊशन भी किया जा सकता है|
                                                                                                                              मेहरबान


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Tuesday, February 15, 2011

सूचना संचार की रेस के मील के पत्थर

  २१ वीं सदी के पहले दस साल सूचना संचार के क्षेत्र में क्रांति के लिये सदैव याद किये जायेंगे। कल्पना कीजिये कि अगर आप उस समय में पैदा हुये होते, जिस समय में राजा महाराजा अपने संदेश किसी विशेष व्यक्ति के हाथों कपडें पर लिखवाकर भेजा करते थे, या प्रेमी प्रेमिकायें को अपने संदेश भेजने के लिये कबूतरों की सहायता लेनी पड़ती थी। कल्पना कीजिये कितना मुश्किल होता होगा, अपने संदेश को उपयुक्त व्यक्ति तक पहुँचाना; कबूतर ने अगर उपयुक्त व्यक्ति को पहचानने में थोड़ी भी गड़्बड़ कर दी, तो सूचना संप्रेषण के उद्देश्य और परिणाम बदल जाते होंगे। साथ ही सूचना संप्रेषण के यह तरीके बहुत धीमे थे और इन माध्यमों की सहायता से सुदूर संदेश नहीं भेजा जा सकता था। २१ वीं सदी में सूचना संप्रेषण की दिशा में न सिर्फ़ नये आयामों को अस्तित्व मिला बल्कि सूचना संप्रेषण की गति में भी अकल्पनीय रूप से विकास हुआ। सूचना क्रान्ति के फलस्वरूप आज हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा डॉक्टर भी किसी मरीज़ का ऑपेरेशन सफ़लता और आसानी से कर सकता है। वैज्ञानिक प्रयोगशाला में बैठे हुये चन्द्रमा पर गये वैज्ञानिकों से बात कर रहे होते हैं। और हम खुद घर पर बैठे, विदेश में चल रहे क्रिकेट मैच का सीधा प्रसारण देख रहे होते हैं या विदेश में रह रहे किसी मित्र को एसएम्एस के माध्यम से गुड मॉर्निंग कह रहे होते हैं।
       राजाओं द्वारा किसी विशेष व्यक्ति की की सहायता से कपडे पर लिखकर सूचना संप्रेषण या कबूतरों के माध्यम से चिट्ठी का आदान-प्रदान सूचना-सम्प्रेषण की पहली पीढी या फ़र्स्ट जनरेशन के पूर्व के माध्यम माने जाते हैं। सूचना सम्प्रेषण के क्षेत्र में पहली पीढी के यंत्रो या कहें कि तकनीक का आगमन 19वीं सदी में हुआ। सूचना तकनीक की पहली पीढी के यंत्र डिजिटल तकनीक पर आधारित नहीं थे। इन यंत्रों का आधार एनालोग तकनीक थी। इन यंत्रों की सहायता से सिर्फ़ आवाज़ एक स्थान से दूसरे स्थान तक सिग्नल के रूप में भेजी जाती थी। इस तरह के सूचना सम्प्रेषण में सिग्नल सिर्फ़ एक ही दिशा में एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजा जा सकता था। पुराने वायरलेस यंत्र इसी तकनीक पर आधारित होते थे। इन यंत्रो से बातचीत करते समय पहले एक सिरे पर बैठा व्यक्ति अपनी बात कहता था, और जब पहले की बात खत्म हो जाती थी तो दूसरे सिरे पर बैठा व्यक्ति अपनी बात कहता था। याद कीजिये, पुराने वायरलेस से बात करते समय लोग ओवर या ऐसा ही कोई और शब्द अपनी बात खत्म करने के बाद कहा करते थे, ये शब्द अपनी बात के पूरे होने का संकेत होते थे और दूसरे व्यक्ति को बात कहने का इशारा भी। सन 1980 तक इस तकनीक का इस्तेमाल दुनियाँ के कई क्षेत्रो में शुरु हो गया था और इनकी सामाजिक उपयोगिता भी अस्तित्व में आ गई थी। कई मूलभूत समस्याओं कॊ सुलझाने में इस तरह के यंत्रों ने अहम भूमिका निभाई थी। आज भी कई पिछ्ड़े देश इन यंत्रो का उपयोग करते है। इन यंत्रों के क्रियान्वयन में ऊर्जा की अत्यधिक मात्रा की आवश्यक्ता होती थी।
    सन 1980 से ही सेकेन्ड जनरेशन यानि सूचना सम्प्रेषण की दूसरी पीढी के यंत्र भी आने शुरु हो गये थे। सूचना संचार की सेकेन्ड जनरेशन यानि दूसरी पीढ़ी के यंत्रो और तकनीक को 2G (second generation) तकनीक  के  संक्षिप्त नाम से भी जाना जाता है। सूचना संचार की दूसरी पीढी यानि 2G के सभी यंत्र डिज़िटल तकनीक पर आधारित हैं। हमारे मोबाइल फ़ोन इसी पीढी के यंत्र हैं। इस तरह के संचार यंत्रों मे ऊर्जा की खपत पहली पीढी के यंत्रों की अपेक्षा कम होती है, इसलिये ये यंत्र पोर्टेबल होते हैं। साथ ही दूसरी पीढी के यंत्रॊ  की सहायता से सिग्नल का दोतरफ़ा संचार भी सम्भव हो सका, यानि अब दो लोग, एक सिरे पर बैठे व्यक्ति की बात पूरी हुये बिना, या उसे बीच में ही रोक कर अपनी बात कह सकते थे। इस तकनीक की सहायता से सामान्यतः आवाज़ के सिग्नल्स को कूट भाषा में बदल कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जाता था। मगर दूसरी पीढी के सूचना संचार के यंत्रों की क्षमता सिर्फ़ इतनी ही थी कि आवाज़ को सिग्नल में बदल कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाया जा सकता था, इसके माध्यम से चित्र या वीडियो नहीं भेजे जा सकते थे। ध्वनि के कूट भाषा में बदलने से संदेश की सुरक्षा और बेहतर हो गयी। पहली पीढी के यंत्रॊं में समान फोन नम्बर के कई यंत्र बनाया जा सकते थे अतः सूचना की सुरक्षा यहाँ एक गम्भीर  समस्या थी। दूसरी पीढी के यत्रों में ऐसा नहीं हो सकता था, इसका प्रमुख कारण यंत्रों का आधार डिज़िटल तकनीक का होना था। डिज़िटल तकनीक का एक बड़ा फ़ायदा यह भी हुआ कि एसएमएस यानि लिखित संदेश भी भेजना संभव हो सका। सेल्यूलर टेलीकोम के क्षेत्र में या कहें कि मोबाइल टेलीफ़ोनी के व्यावसायिक उपयोग के क्षेत्र में 2G नेट्वर्क को पहली बार सन 1991  में फ़िन्लैंड में लॉन्च किया गया था। इन सेवाऒं का आधार GSM प्रणाली थी। बाद में CDMA प्रणाली का भी उद्भव हुआ। यह प्रणालियाँ सिग्नल्स को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने की दो अलग अलग तरह की तकनीकें मात्र हैं। यह तथ्य सर्वविदित है कि वायरलेस संचार विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के माध्यम से होता है। इन विद्युत चुम्बकीय तरंगों की एक अद्वितीय आवृत्ति या फ़्रीक्वेन्सी होती है। चूँकि वातावरण में कई आवृत्तियों की तरंगे पहले से ही मौजूद रहती हैं, अतः वातावरण की तरंगो का  मोबाइल की तरंगों में हस्तक्षेप रोकने के लिये इन्हें एक निर्धारित फ़्रीक्वेन्सी बैंड में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जाता है। इसी निर्धारित फ़्रीक्वेंसी बैंड को स्पेक्ट्रम कहा जाता है। समस्त मोबाइल ऑपेरेटर कम्पनियों को सूचना संचार के लिये एक निश्चित आवृत्ति बैंड या स्पेक्ट्रम का आवंटन भी किया जाता है। सूचना संचार की दूसरी पीढी यानि 2G के यंत्रो के क्रियान्वयन के लिये आवंटित किये गये फ़्रीक्वेन्सी बैंड को 2G स्पेक्ट्रम कहा जाता है। देश की मोबाइल ऑपेरेटर कम्पनियों को निर्धारित स्पेक्ट्रम से कमाये गये लाभ के बदले  सरकार को विनिमय शुल्क देना होता है, इसका निर्धारण सामान्यतः नीलामी के माध्यम से होता है। पिछ्ले दिनों इसी 2G स्पेक्ट्रम के आवंटन के लिये की नीलामी में भारी गड़्बड़ी का खुलासा हुआ। जिसमें सरकार को पौने दो लाख करोड़ से भी ज़्यादा का घाटा होने के आंकड़े सामने आये।
   2G  यानि दूसरी पीढी के संचार यंत्रों और तकनीक को लगातार और बेहतर और उपभोक्ता की सहूलियतें बढाने के लिये परिवर्धित और विकसित करने का कार्य जारी रहा। इसी विकास के क्रम में सूचना संचार के कुछ और महत्वपूर्ण विकल्पों का अस्तित्व सामने आया। जिनमें से एक GPRS है। GPRS की सहायता से छोटे छोटे सूचना पैकेटों  को भी मॊबाइल की सहायता से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाया जाता है, जो कि ध्वनि के कूट भाषा मे परिवर्तित किये गये सिग्नल से बडॆ होते हैं। साथ ही सूचना पैकेटों के एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाये जाने की गति भी पहले की अपेक्षाकृत तेज़ होती है। इसे लोगों ने सूचना संचार की 2.5G यानि सेकेन्ड एंड हाफ़ जनरेशन तकनीक  कहा।
   सूचना संचार की प्रक्रिया में डेटा ट्रान्स्फ़र में तेज़ी की मांग ने और लैपटॉप कम्प्यूटर के सामान्य अनुप्रयोग में आने के साथ मोबाइल वायरलेस सूचना संचार की ज़रूरत ने 2.75G यानि दूसरी पीढी के सम्वर्धित संस्करण बाज़ार में लॉन्च किया गया। जिसे EDGE के रूप में भी जाना जाता है। इसकी सहायता से GPRS की अपेक्षा तीन गुनी डॆटा ट्रान्स्फ़र की स्पीड पायी जा सकती है। एमएमएस की सुविधा भी इसकी सहायता से पाना आसान और बेहतर हो गई। अगर इस विकास क्रम का परिणाम खोजा जाये तो अब पहले से बेहतर और अधिक गति से डेटा ट्रान्सफ़र हो सकता था। लेकिन अब भी ध्वनि यानि आवाज़ सूचना संचार में एक प्रभावी माध्यम थी। दूसरी पीढी के सूचना संचार यंत्रों की सहायता से वीडियो और बडे डेटा पैकेट्स एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से नहीं भेजे जा सकते थे, अर्थात इस प्रकिया की गति बहुत धीमी थी। इस समस्या से निबटने के लिये एक और नयी पीढी के सूचना संचार यंत्रों का उदय हुआ, जिन्हें सूचना तकनीक की 3G यानि तीसरी पीढी कहा गया।
  सूचना संचार के यंत्रॊं की तीसरी पीढी में डेटा ट्रान्सफ़र की गति में क्राँतिकारी परिवर्तन आया है। कई देशों में उपभोक्ता मोबाइल पर वीडियो कॉन्फ़्रेन्सिंग की सुविधा का लाभ ले रहे हैं। इसकी सहायता से उपभोक्ता अपने मोबाइल पर ही टेलीविज़न देखने का आनन्द उठा सकता है। इस तकनीक का टेलीमेडीसिन के क्षेत्र में भी उपयोग हो रहा है, जिसमें डॉक्टर सुदूर ऑपेरेशन थियेटर में मरीज़ का ओपेरेशन कर सकता है। उच्च स्तर की मीटिंग्स भी लोग सुदूर बैठकर विडियो कॉन्फ़्रेन्सिग की सहायता से करने लगे हैं। भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण ने भी भारत में मोबाइल ऑपेरेटर कम्पनियों से जुलाई के अन्त तक वीडियो कॉलिंग की सुविधा आम उपभोक्ताऒं को देने का निर्देश दिया है। 3G की सहायता से क्षेत्रीय सुविधाऒं में भी वृद्धि की जा सकती है। जैसे कि कई जनकल्याणकारी और सामान्य ट्रेनिंग उपभोक्ताऒं को फोन के माध्यम से दी जा सकती है। सूचना संचार की तकनीक में इतनी तेज़ी से विकास हो रहा है कि इस साल के अन्त तक सूचना संचार की चौथी पीढी के यंत्र भी बाज़ार में आने की सम्भावना है।
  सूचना संचार की चौथी पीढी के यंत्रॊं की सहायता से अत्यधिक तेज़ गति से डेटा ट्रान्सफ़र किया जा सकेगा। इसकी गति तीसरी पीढी के मोबाइल कनेक्शन्स से कई गुना अधिक होगी। चौथी पीढी के सूचना संचार की सबसे अहम बात यह होगी कि सूचनायें कहीं भीं और कभी भी की तर्ज़ पर उपलब्ध होंगी। इस नेटवर्क की सहायता से फोटो, वीडियो, और बडे बडे सूचना पैकेट आदि सब मोबाइल सेट की सहायता से पलक झपकते ही एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाये जा सकेंगे। इस व्यवस्था में मोबाइल सेट्स को भी आईपी एड्रेसइंटरनेट प्रोटोकाल पता दिया जायेगा। ऐसे में मोबाइल सेट भी लैपटॉप की तरह हो जायेंगे। मगर इन्हें एक बार में सिर्फ़ एक नेट्वर्क से ही जोडा जा सकेगा।
 सूचना संचार की पाँचवीं पीढी के बारे में अभी से कहा जा रहा है कि पाँचवी पीढी के आते ही मोबाइल सेट सूचना संचार के क्षेत्र में हमारे दिमाग की तरह हो सकेगा। यह एक ही समय कई तरह की नेटवर्क प्रणालियों से जुड़ सकेगा, जैसे GPRS, EDGE, WLAN, WiFi आदि। इसे संज्ञानात्मक नेटवर्क की संज्ञा दी जा रही है। लेकिन ऐसी परिस्थितियों में सूचना संचार की गति इतनी तीव्र हो जायेगी कि डेटा ट्रान्स्फ़र की प्रक्रिया में डेटा की प्रक्रिति पर नज़र रख पाना बहुत मुश्किल होगा। देशों कीं सुरक्षा एजेंसियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रहे डेटा पर नज़र रख पाने में असमर्थ होंगीं। याद हो कि अभी कुछ दिनों पहले मोबाइल बनाने वाली कम्पनी मोबाइल इन मोशन, जो कि ब्लैकबेरी फोन बनाती है, को भारत सरकार ने बैन करने की बात कही थी क्योंकि इन फोन्स पर की जा रही बातचीत या अन्य डेटा ट्रान्स्फ़र के बारे में सुरक्षा एजेन्सियां जानकारी नहीं जुटा पाती थीं, जिस कारण से इनका उपयोग नकारत्मक कार्यों में होना शुरु हो गया था। चौथी और पाँचवी पीढी के सूचना संचार में भी इसी तरह की समस्यायें भी आयेंगीं। इसी कारण से कई देश इन सुविधाऒं के बाज़ार में लाने पर सहमत नहीं हैं। वैज्ञानिक और कम्प्यूटर इंजीनियर्स इस ओर भी शोध कार्य कर रहे हैं। आशा है कि डेटा ट्रान्सफ़र की गति को तेज़ करने की अंधी दौड़ में सामाजिक हितों का पूरा खयाल रखा जायेगा।