Tuesday, September 6, 2011

डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग- (भाग-२)



डी.एन.ए. की खोज की कहानी बहुत नयी नहीं है, यह यात्रा उन्नींसवीं शताब्दी में शुरु हुयी थी। जब लोग जीन्स और आनुवाँशिकता के स्त्रोत के बारे में जिज्ञासु थे, और बहुत कुछ जानते भी नहीं थे। 1860 के बाद तक जीन रहस्यमयी ब्लैक-बॉक्स से कम नहीं था। लोग सोचते थे कि जीन प्रोटीन से मिलकर बना होना चाहिये। क्रोमोसोम में वास्तव में कुछ रहस्यमयी ही था, जिसे न्यूक्लिक एसिड यानि डी.एन.ए. के रूप में पहचाना गया। डी.एन.ए. को मानव शरीर से सबसे पहले स्वीडन के एक डॉक्टर फ़्रेडरिक मिशचर ने पृथक किया था। 1869 में डॉ. मिश्चर जर्मनी के ट्यूबिंगन शहर में घायल सैनिकों का इलाज़ और कुछ व्यक्तिगत शोध कर रहे थे। वहीं उन्होंने एक घायल सैनिक की पट्टी में लगे मवाद से उस सैनिक मरीज़ का डी.एन.ए. पृथक किया था। डॉ. मिशचर का अन्दाज़ा था कि शायद डी.एन.ए. ही आनुवाँशिकता की कुँजी है और यह आनुवाँशिकता की भाषा को उसी तरह दर्शा सकता है जैसे कि किसी भाषा के 20-30अक्षरों के ज़रिये पूरी भाषा का आधार तय होता है। लेकिन, डॉ. मिशचर इसे व्यक्तिगत विश्वास ही रख पाये और तब इस सम्बन्ध में कोई बड़ी खोज नहीं हुयी। साल दर साल बीतते चले गये। 
  बींसवी शताब्दी में जेम्स वाटसन नामक एक युवा वैज्ञानिक था जो यह मानता था कि जीन प्रोटीन से नहीं बल्कि डी.एन.ए. से बने होते हैं, लेकिन विज्ञान और व्यक्तिगत विश्वास में तब तक कोई सम्बन्ध होता जब तक व्यक्तिगत विश्वास को ठोस भौतिक आधारों पर सही न सबित कर दिया जाये। अपने व्यक्तिगत विश्वास को सही साबित करने के लिये जेम्स वाटसन कई संस्थानों से होते हुये और असंतुष्ट होकर सही संस्थान और साथियों की खोज में कैवेन्डिश लेबोरेटरी पहुँचा, जहाँ उसकी मुलाकात उसी के स्तर की प्रतिभा वाले युवा वैज्ञानिक “फ़्राँसिस क्रिक” से हुई। फ़्राँसिस क्रिक तब तक पैतीस साल का हो चुका था और उसके पास अब तक पी.एच.डी. की डिग्री भी नहीं थी। जिस इन्स्ट्रुमेंट यानि वैज्ञानिक उपकरण पर वह काम करके, गर्म जल की अत्यधिक दबाव की स्थिति में श्यानता(Viscosity) मापना चाह रहा था, वह उपकरण जर्मनी के द्वारा उसके विश्वविद्यालय में की गयी बमबारी में ध्बस्त हो गया था। यह बात द्वितीय विश्व युद्ध की है।  परेशान होकर वह भौतिकी के साथ साथ जीवविज्ञान में भी रुचि लेने लगा। उसकी आदत थी कि वह अपनी परेशानियों से ज़्यादा दूसरों की परेशानियों की फ़िक्र किया करता। इसी आदत ने उसे जीन और डी.एन.ए. से परिचित करवाया। इसी के साथ जब तेजस्वी और जीवविज्ञान की समझ रखने वाला अमेरिकी “जेम्स वाटसन” और मेधावी, भौतिकी की समझ रखने वाला, मगर लक्ष्य हीन ब्रिटिश “फ़्राँसिस क्रिक” की जोड़ी बनी तो यह जोड़ी वैज्ञानिक इतिहास की सबसे बेहतरीन और सफ़ल जॊड़ी के रूप में उभरकर सामने आयी। इसी जोड़ी ने सन 1953 में डी.एन.ए. की संरचना की खोज की घोषणा की। “क्रिक” ने एक कार्यक्रम में खुश होकर कहा था “हमने जीवन का रहस्य खोज लिया है” । लेकिन “वाट्सन” को अब भी यह डर था कि उन लोगों से कोई बड़ी भूल तो नहीं हो गई है जिसके कारण इतने सनसनीखेज परिणाम आ रहे हैं। निश्चित रूप से वे लोग गलत नहीं थे और जीव विज्ञान के एक नये काल की शुरुआत हो चुकी थी। बाद में पता लगा कि डी.एन.ए. में एक कोड होता है जो कि दोहरी कुँडली में सीढियों की तरह सजा रहता है। इस रहस्यमयी कोड को डिकॊड यानि कि इसका रहस्य समझने की काफ़ी कोशिश की गयी। कई असफ़लताओं के बाद दो वैज्ञानिकों “मार्शल नीरेनबर्ग” और “जॉन मथाई” ने डी.एन.ए. की कोडिंग का रहस्य खोज लिया। यह भी वैज्ञानिक दुनियाँ की एक सनसनीखेज घटना थी। सन 1965, तक डी.एन.ए. के सभी कोड जाने जा चुके थे और इस तरह नये आनुवाँशिकी युग का नीव रखी जा चुकी थी।
इन सब खोजों का जैविकी के नज़रिये से बहुत महत्व था और ये खोजें बहुत क्रांतिकारी और सनसनी के रूप में आविष्कारित हुयीं थी, मगर फिर भी इन खोजों का मानव की अद्वितीय पहचान से कोई सम्बन्ध नहीं था। सन 1985 तक यह सिद्ध नहीं हो पाया था कि हर व्यक्ति का डी.एन. ए. क्रम अलग अलग होता है, इसलिये यह धारणा प्रबल थी कि हर मानव का डी.एन.ए. क्रम (DNA sequence) समान होता है। सन 1985, में लिसेस्टर विश्व्वविद्यालय के डॉ. एलेक जेफ़री ने डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग की खोज करके एक बार फिर सनसनी फ़ैला दी। एलेक जैफ़री ने सिद्ध किया, कि हर एक का डी.एन.ए. क्रम किसी दूसरे से एकदम अलग होता है, चाहे जैविक रूप से वे एक दूसरे के सगे-सम्बन्धी ही क्यों ना हो। माँ और बेटा या भाई- भाई के डी.एन.ए. क्रम स्पष्ट रूप से अलग अलग होते हैं। यह बात और है कि बेटे के डी.एन.ए. क्रम माँ-पिता पर बहुत अधिक निर्भर होते हैं मगर समान नहीं होते। इसी स्पष्टता और अद्वितीय विशेषताओं की फ़ोरेंसिक विज्ञान और स्पष्ट रूप से पहचान सुनिश्चित करने में ज़रुरत भी थी। यहीं से डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग की सहायता से मानव विशेष की पहचान का दौर शुरु हुआ। आज विश्व के लगभग हर देश के न्यायालय डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिग के साक्ष्यों कों सबसे ज़्यादा सटीक और विश्वस्यनीय मानते हैं। भारत विश्व का ऐसा तीसरा देश था जहाँ डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग को देश के न्यायालयों में उत्कृष्ट और सबसे अधिक विश्वस्यनीय साक्ष्य के रूप में मान्यता मिली थी और हमारे देश में अब तक कई बड़े और विवादास्पद मामले इस तकनीक से सुलझाये गये हैं। 


इस तकनीक को भारत में इस मुकाम तक लाने में वैज्ञानिक और औद्यैगिक अनुसंधान परिषद के Center for Cellular and Molecular Biology, हैदराबाद के डॉ. लालजी सिंह को जाता है। डॉ. लालजी सिंह ने न सिर्फ़ भारत में बल्कि, डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक को बेहतर बनाने में सतत वैज्ञानिक स्तर पर योगदान दिया, साथ ही उन्होंने इस तकनीक को भारतीय न्यायालयों की न्यायप्रक्रिया में सहभागी बनाने में भी सक्रिय योगदान दिया, जिस कारण भारत इस तकनीक का न्यायालयों में उपयोग करने वाला अमेरिका और ब्रिटेन के बाद विश्व का तीसरा देश बना।
  वर्तमान में जीवन के तमाम क्षेत्रों में व्यक्ति की सही पहचान करने के लिये डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग का इस्तेमाल होता है। इस तकनीक की सहायता से वर्तमान में सबसे अधिक उत्कृष्टता और विश्वस्यनीयता के साथ जीव की पहचान की जाती है। आपराधिक मामलों में घटना स्थल पर मिले खून के छींटॊं से डी.एन.ए. सेम्पल एकत्र करके उनका मिलान अभियुक्यतों के डी.एन.ए. से करके सही अपराधी को पहचाना जाता है। यह प्रक्रिया भारत और विश्व के अन्य तमाम देशों में कई महत्वपूर्ण मामले सुलझा चुकी है। आजकल बाज़ार में नकली उत्पादों की भरमार है। हर एक उत्कृष्ट उत्पाद का नकली संस्करण बाज़ार में उपलब्ध है। इस समस्या से मिबटने के लिये कम्पनियों ने अपने उत्पाद के रैपर पर होलोग्राम देना शुरु कर दिया। लेकिन, इससे भी बेहतर तकनीक उपलब्ध कराई डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक ने। आज विश्व की सर्वश्रेष्ठ कम्पनियाँ अपने सर्वोत्कृष्ट उत्पादों के कवर के नीचे, अपनी जानकारी वाले डी.एन.ए. क्रम से युक्त पदार्थ रख देती हैं, जिससे समय समय पर बाज़ार में संशय होने पर उत्पाद की सत्यता की जाँच आसानी से डी.एन.ए. डिकोडिंग करके की जाती है। जो लोग अच्छी नस्ल के कुत्ते, तेज़ दौड़ने वाली असली नस्ल के घोड़े या अन्य जानवर पालते हैं वो जानवर खरीदने से पहले ही उस जानवर की डी.एन.ए. क्रम का विश्लेषण करवा करके यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि जानवर जिस नस्ल का बताकर दिया जा रहा है, वस्तुतः वह उस नस्ल का है या नहीं।


 डी.एन.ए. क्रम विश्लेषण की तकनीक में अब इतनी प्रगति हो चुकी है कि रक्त की अल्प मात्रा या बाल की जड़ का टुकडा यानि उपयुक्त जीव की कोशिकाओं का छोटा सा टुकड़ा भी इन विश्लेषणों के लिये पर्याप्त है। अमेरिकी फ़ौज में हर नये सैनिक की भर्ती के समय ही उसका डी.एन.ए. सैम्पल ठंडे भंडारग्रहों में भंडारित कर लिया जाया है। जब कॊई सैनिक किसी युद्ध में मारा जाता है और उसकी पहचान उसके बिखर चुके टुकड़े टुकडे हो चुके शरीर से नहीं हो पाती है तो उस बिखरे हुये शरीर से कोशिकायें निकालकर उनका डी.एन.ए. विश्लेषण करवाकर, भंडार गृह में रखे गये सैम्पल्स से मिलान करवा कर मृतक सैनिक की सही पहचान की जाती है। आज इस तकनीक का इस्तेमाल पौधों की उत्कृष्ट संकरित प्रजातियाँ बनाने में या उनके उद्गम की सही पहचान में, जानवरों के लिंग परीक्षण और वन्य जीव संरक्षण में किया जाता है। इसके साथ ही इसका इस्तेमाल परिवारों के निजी मामलों को सुलझाने में जैसे- किसी बच्चे के असली पिता को पहचानने में, बच्चे के खो जाने की स्थिति में उसकी सही पहचान करने में या अस्तपालों में बच्चे के जन्म के समय बच्चा बदल जाने की स्थिति में सही माता पिता की सटीक पहचान में डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक का इस्तेमाल भारत और विश्व में बड़ी विश्वस्यनीयता के साथ हो रहा है। 
बेशक़ डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिटिंग तकनीक ने जैविक पहचान को सुनिश्चित करने की दिशा में क्राँतिकारी बदलाव लाया है। लेकिन अभी यह तकनीक आम जनता के रोज़मर्रा की ज़िंदगी में पहचान साबित करने के लिये उपयुक्त नहीं है। डी.एन.ए.क्रम की पहचान हमारे जैविक  इतिहास और आनुवाँशिकता से जुडी पहचान है। इस पहचान का इस्तेमाल “विशिष्ट पहचान प्राधिकरण” द्वारा संचालित किये जा रहे हर एक भारतीय निवासी की पहचान सुनिश्चित करने के क्रम में नहीं किया जा सकता। इसके कई वाजिब कारण हैं। यह अभी अपेक्षतया बहुत मँहगी तकनीक है। इस तरह से पहचान का प्रमाणन सिर्फ़ उच्च कोटि की विश्वस्यनीय प्रयोगशालाओं में ही हो सकता है। एक अरब से भी अधिक लोगों का डी.एन.ए. डाटा एकत्र करना और उसे संग्रहित करना बहुत ही चुनौती और खतरे भरा कार्य है। किसी व्यक्ति के डी.एन.ए. डाटा में की गयी छॆड़्छाड़ के बहुत ही गंभीर परिणाम होंगे। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि डी.एन.ए. और जीनोम के संबन्ध में पूरे विश्व में जिस गति के साथ शोध कार्य चल रहा है, उससे यह प्रतीत होता है कि शायद वह दिन दूर नहीं जब मानव डी.एन.ए. को परिवर्तित करने की विधि जान जाये। अगर ऐसा हो जाता है तो इस डी.एन.ए. फ़िंगर प्रिटिंग तकनीक विश्वस्यनीय नहीं रहेगी। उस समय वैज्ञानिकों को अपराधियों की पहचान के नये तरीके खोजने पड़ेंगे। डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिटिंग तकनीक के सम्बन्ध में ऎसे तमाम खतरों और जटिलता को देखते हुए इसे भारतीय अद्वितीय पहचान प्राधिकरण ने अद्वितीय पहचान कार्यक्रम की परिधि से अब तक बाहर रखा है।   
                               --Meher Wan

• डी.एन.ए.- फ़िंगरप्रिंटिंग-( भाग-१)



2०वीं और २१वीं सदी में समय बहुत तेज़ी से बदला और समय के साथ मानव की पहचान सुनिश्चित करने के मानक भी बदलने पड़े। एक समय फोटो पहचान पत्र ने ऑफ़िसों, खुफ़िया संस्थानों और रक्षा-अनुसंधान से जुड़े संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारियों की पहचान सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया था, लेकिन डिजिटल फ़ोटोग्राफ़ी के अस्तित्व में आने के बाद फोटो से छेड़-छाड़ इतनी आसान हो गई कि फोटो पहचान पत्रों की विश्वस्यनीयता खतरे में पड़ गई। इसके बाद सर विलियम हर्शेल ने, जो कि 19वीं सदी के ब्रितानी प्रशासक थे, उँगलियों के निशानों को मानव पहचान का आधार साबित किया। इस तरह बींसवीं सदी के अन्त तक उंगलियों के निशान रोज़मर्रा के कार्यों में सामान्य जनता की पहचान सुनिश्चित करने का साधन बने रहे, मगर ज्ञान के विस्तार से कुछ लोगों ने इस तकनीक के दुरुपयोंगों को भी ढ़ूंढा। तब पहचान का नया आधार तलाशा जाने लगा। तत्पश्चात, आँख की पुतली का फोटोग्राफ़ पहचान का आधार उभरकर सामने आया। इसी बीच फ़ोरेंसिक, आपराधिक या अन्य पहचान सम्बन्धी मामलों में डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग का भी उद्भव हुआ। डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग के आविष्कार के पीछे मूल रूप से आपराधिक और फ़ोरेंसिक मामलों की जटिलता थी, जिसे कि वैज्ञानिक सुलझाना चाह्ते थे, मगर अब कुछ लोग इसे सामान्य जन के लिये भी पहचान का एक सशक्त आधार मान रहे हैं। समय के साथ इस तकनीक ने भी विस्तार पाया, इस तकनीक को आसान बनाने के प्रयास हुये, जिनमें से कई प्रयास बड़े स्तर पर सफ़ल भी हुये, इन प्रयासों के कारण यह तकनीक आज भारत समेत विश्व के तमाम न्यायालयों में पहचान सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण साधन मानी जाती है।    

डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक के पीछे जैव-तकनीकी के विकास की लम्बी कहानी है। असल में इस तकनीक की खोज से पहले, मानव या जीव की पहचान साबित करने में इसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में नहीं सोचा गया था। ऐसा कहना ज़्यादा उचित होगा कि वैज्ञानिक मानव शरीर सम्बन्धी विषयों पर विस्तृत अध्य्यन कर रहे थे, इसी बीच उन्हें कुछ परिणाम मिले, जिनके आधार पर डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक का उद्भव हुआ। यह एक तरह का संयोग ही था और उस समय यह खोज किसी सनसनी से कम नहीं थी। 20वीं सदी की शुरुआत तक अपराधी उँगलियों के निशानों के ज़रिये पकड़े जाने और अपराध के कारण सजा भुगतने के बारे में जान चुके थे। इससे पहले कई अपराधी अपनी उँगलियों के निशानों के अपराध के स्थान पर छूट जाने के कारण पकड़े गये थे और सजा पा चुके थे। इसीलिये नये अपराधियों ने ऊँगलियों के निशान अपराध के स्थान पर छोड़ने से बचने की तरकीब खोजनी शुरु की। कुछ अपराधियों ने हाथों में ग्लॉव्स पहनकर इससे बड़ी आसानी से छुटकारा भी पा लिया। अब ऊँगलियों के निशानों से अपराधियों को कॊई डर नहीं था।


 इस तरह, वैज्ञानिकों ने अपराधियों को पहचानने, पकड़ने की नयी तरकीब खोजनी शुरु की। चूँकि, कत्ल, जैसे अपराधों में सामान्यतः खून बहुत बिखरा पड़ा मिलता था, और उँगलियों के निशान जलकर, कटकर, ग्लॉव्स पहनकर या किसी अन्य कारण से खत्म किये या छुपाये जा सकते थे। ऐसे में खून एक महत्वपूर्ण पदार्थ था, जिसका कि व्यक्ति की पहचान में उपयोग किया जा सकता था। लेकिन, सन 1901  तक मानव शरीर के बारे में हमारी समझदारी इतनी स्पष्ट नहीं हो पायी थी कि हम रक़्त‍ को मानव पहचान का सक्षम साधन मान सकें। असल में 1901ईo  तक वैज्ञानिकों के बीच यह मत था कि हर मानव का रक्त एक दूसरे के एकदम समान होता है। यह एक ऐसा विश्वास था जिसके कारण डॉक्टर्स किसी भी मरीज़ के शरीर में ज़रूरत पड़ने पर किसी का भी रक्त डाल देते थे, और यह रक्त आपस में कई बार अभिक्रिया करके मरीज़ की जान ले लेता था। 19वीं शताब्दी में इस तरह अनगिनत मरीज़ मारे गये। जिन्हें सिर्फ़ इसलिये नहीं बचाया जा सका, क्योंकि हम रक्त समूहों के बारे में नहीं जानते थे और यह भी नहीं जानते थे कि कुछ रक्त समूह आपस में एक दूसरे से अभिक्रिया करके मरीज़ की जान ले लेते हैं। 


वस्तुतः, मानव रक्त चार प्रकार का होता है A, B, AB, और O| इन चार समूहों के बारे में सबसे पहले 1901 में वैज्ञानिक “कार्ल लैण्डस्टेनर” ने बताया और इनके सम्बन्ध में प्रयोगों का प्रदर्शन किया। यह एक महत्वपूर्ण खोज थी, मगर इसका भी मानव की पहचान सुनिश्चित करने से कॊई ख़ास लेना देना नहीं था। यह पूर्णतः जैविकी से सम्बन्धित खोज थी, इस खोज के कारण हर रोज हो रहीं तमाम मौतों से लोगों को बचा लिया गया। डॉक्टरों ने बिना रक्त समूह की जाँच किये रक्त को मरीज़ के शरीर में डालना बन्द कर दिया। लेकिन, ये रक्त समूह सिर्फ़ चार प्रकार के थे और औसत रूप से एक चौथाई जनसंख्या का रक्त समूह समान था, इस तरह किसी आपराधिक घटना में यदि १० लोगों को गिरफ़्तार किया जाये तो दस में से पाँच के रक्त समूह समान होने की बहुत अधिक सम्भावना है। यह बात ज़रुर है कि यदि घटना स्थल पर मिले रक्त का रक्त समूह अभियुक्त के रक्त समूह से नहीं मिलता तो घटना में उस व्यक्ति के शामिल होने की सम्भावना खत्म हो जाती है। अतः रक्त समूह के आधार पर किसी व्यक्ति की त्रुटिरहित पहचान करने के लिये न सिर्फ़ अपर्याप्त था, बल्कि स्वपन लोक की कल्पना की तरह था।
घटना स्थल से मिले अवशेषों में रक्त ही एक ऐसा जैव-शारीरिक पदार्थ था जिससे मानव पहचान के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों को सबसे ज़्यादा आशायें थीं, साथ ही वैज्ञानिकों की नज़र में मानव चिकित्सा की नज़र से भी रक्त एक महत्वपूर्ण पदार्थ है। इस कारण से वैज्ञानिक चिकित्सा और जीव शरीर विज्ञान की नज़र से रक्त की विशेषताऒं का विश्लेशण कर रहे थे। इसी के साथ-साथ फोरेंसिक क्षेत्र के वैज्ञानिक भी अपने लिये शोध कर रहे थे। समय के साथ वैज्ञानिकों ने रक्त की अन्य महत्वपूर्ण विशेषताओं को खोजा। जिनमें से 1937 में हुय़ी एक महत्वपूर्ण खोज थी रक्त के Rh गुणाँक (factor) की खोज। मानव रक्त में ऐसे 100 गुणाँक होते हैं, जिनकी सहायता से रक्त के आधार पर व्यक्ति की बहुत त्रुटिहीनाता के साथ सही पहचान हो सकती है। यह खोज भी एक क्राँतिकारी खोज थी, और इस तकनीक की सहायता से 99% से भी अधिक निश्चितता के साथ पहचान साबित की जा सकती थी। फिर भी, जिस स्पष्टता और निश्चितता (यानि 99.999%) की माँग किसी भी देश का न्यायालय करता है, या जीवन मरण के फ़ैसले देने के लिये जिस स्तर की स्पष्टता और सुनिश्चितता होनी चाहिये, वह स्पष्टता और सुनिश्चितता उपरोक्त तकनीक उपलब्ध कराने में अक्षम थी। अतः इस तरह शोध कार्य चलता रहा।
                                                               --Meher Wan