Sunday, October 30, 2011

दीवाली के बाद के संकट

                                             ----मेहेर वान


 दीपावली गुज़रते ही देश के विभिन्न शहरों से वायुप्रदूषण और ध्वनिप्रदूषण से जुड़ी खबरें आने लगीं हैं। पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार दीपावली त्यौहार के बाद कोलकाता के वातावरण में हानिकारक गैस सल्फ़र डाई आक्साइड की मात्रा दो गुनी से भी अधिक मापी गयी है, कोलकता के कई अन्य स्थानों पर नाइट्रोजन डाई आक्साइड की मात्रा भी सामान्य से काफ़ी ऊपर पायी गयी है। वहीं वातावरण में हानिकारक पदार्थों के सूक्ष्म कणों की मात्रा भी सामान्य से तीन गुनी मापी गयी है। कोलकाता की संयुक्त कमिश्नर दमयन्ती सेन ने बताया कि दिवाली के दिन 713 व्यक्ति प्रतिबन्धित सीमा से ज़्यादा आवाज वाले पटाखे चलाते हुये गिरफ़्तार किये गये हैं और 883 किलोग्राम प्रतिबन्धित पटाखे बरामद किये गये हैं। इससे भी बुरा हाल चेन्नई का है, यहाँ के कुछ स्थानों पर वायु में हनिकारक पदार्थों के सूक्ष्म कणों की मात्रा सामान्य से चौदह गुनी मापी गयी है। तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बॊर्ड ने इस साल कुछ विशेष स्थानों पर वायु और ध्वनि प्रदूषण मापक यंत्र लगाये थे जिनसे दीपावली के दिनों में पूरे समय प्रदूषण पर नज़र रखी गयी। दिल्ली समेत अन्य शहरों में भी वायु में हानिकारक गैसों और ज़हरीले सूक्ष्म कणॊं की मात्रा सामान्य से कई गुनी पायी गयी है। वातावरण में अचानक बढी हानिकारक और ज़हरीले पदार्थों की यह मात्रा सामान्य होने में काफ़ी समय लग जायेगा। इन दिनों में ये गैसें और अतिसूक्ष्म कण हमारी साँस के साथ फ़ेफ़ेड़ों में जाकर कई बीमारियाँ फ़ैला रहे हैं।

      आँकड़े बताते हैं कि शहरों में हर दिवाली के बाद अस्पतालों में साँस और श्वसन तंत्र से सम्बन्धित रोगियों की संख्या सामान्य से कई गुना अधिक हो जाती है, इसके साथ ही बच्चों में आँखों से जुड़ी समस्यायें भी दीपावली के वायुप्रदूषण के कारण बढ़ जातीं हैं। शहरों में अधिक आबादी घनत्व होने के कारण पहले से ही वायुप्रदूषण सामान्य मानकों से अधिक होता है। दीवाली में तेज़ आवाज़ वाले, हानिकारक पदार्थों से बने पटाखों और फ़ुलझड़ियों के कारण प्रदूषण की समस्या और भी भयानक हो जाती है। ये पटाखे निर्माण से लेकर प्रयोग होने तक ज़बर्दस्त तरीके से प्रदूषण फ़ैलाते हैं।
      दीवाली पर इस्तेमाल होने वाले पटाखे और फ़ुलझड़ियाँ बनाने में जिन पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है वे पदार्थ बहुत ही हानिकारक होते हैं, इनमें से अधिकतर पदार्थ ज़हरीले भी होते हैं। पटाखे फ़ोड़ने पर उत्सर्जित होने वाले पदार्थों में ताँबा, कैडमियम, लैड, मैग्नीशियम, सोडियम, ज़िंक, पोटेशियम समेत सल्फ़र डाई ऑक्साइड, नाइट्रिक ऑक्साइड, नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड और अन्य हानिकारक गैसें प्रमुख हैं। कॉपर यानि ताँबा के अतिसूक्ष्म कण हमारी साँस की नली में तेज़ जलन पैदा करते हैं। कैडमियम एक ज़हरीला पदार्थ है और यह किडनी को गन्भीर नुकसान पहुंचा सकता है। अत्यधिक मात्रा में कैडमियम शरीर में जाने से से उच्च रक्त दाब की शिकायत हो सकती है। पटाखों के निर्माण में लैड का उपयोग आवश्यक रुप से होता है। शायद बहुत कम लोगों को जानकारी हो कि लैड मानवों के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र पर आक्रमण करता है, सामान्य से अधिक मात्रा में शरीर में जाने से कैंसर होने का खतरा भी रहता है। पटाखों से निकलने वाली गैसें भी वातावरण में प्रदूषण उत्पना करतीं हैं और साँस से रोग फ़ैलाने में सहायक होतीं हैं। जो मज़दूर इनकी सहायता से पटाखों का निर्माण करते हैं उन्हें इनसे होने वाली हानियों के बारे में जानकारी नहीं होती, और वे अपने शरीरों को गम्भीर नुकसान पहुँचाते हैं। इस प्रदूषण से छोटे बच्चों को सबसे अधिक मुश्किल होती है, बहुत से बच्चों को इन ज़हरीले सूक्ष्म कणों के आँखों में जाने से आँखों की समस्यायें बचपन मे ही शुरु हो जाती हैं।
  सन 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने त्यौहारों पर पटाखों और फ़ुलझड़ियों से होने वाले ध्वनि और वायु प्रदूषण पर सख्त निर्देश दिये थे। जिनमें पटाखों की अधिकतम आवाज़ और निर्माण में प्रयुक्त होने वाले तत्वों के सम्बन्ध में मानक निर्धारित किये गये थे। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और दिल्ली पुलिस के मानकों के अनुसार पटाखों से होने वाली अधिकतम आवाज़ पटाखे से 4 मीटर दूरी पर 125 डेसीबल से अधिक नहीं होनी चाहिये। अलग-अलग सर्वे के अनुसार कहा जाता है कि अस्सी प्रतिशत पटाखे मानकॊं पर खरे नहीं उतरते। यही पटाखे हम अपने क्षणिक आनन्द के लिये इस्तेमाल करते हैं, मगर यह नहीं सोचते कि यह हमारे लिये कितने नुकसानदायक है। हमें इनसे होने वाले नुकसानों का इसलिये भी पता नहीं चलता क्यों कि थॊड़ी से सावधानी बरत कर हम अपने आप को सिर्फ़ जलने से बचाकर यह महसूस करते है कि अब हमें पटाखों से कॊई नुकसान नहीं है। लेकिन दीवाली के बाद अगर आपको साँस और आंखों से सम्बन्धित कॊई शिकायत अचानक होती है तो इसमें पटाखों का योगदान प्रमुख होता है।

Friday, October 28, 2011

जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी के साथ छेड़छाड़

--मेहेर वान


 
कुछ दिनों पहले अमेरिका में वैज्ञानिकों, अवकाश प्राप्त सरकारी अफ़सरों और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के एक पैनल ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सरकारों से कुछ ठोस कदम उठाने की सिफ़ारिश की। इस पैनल का मानना है कि पर्यावरण सुधार के लिये अब कुछ क्रांतिकारी तरीकों का इस्तेमाल होना चाहिये। धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है और यह बात तय हो चुकी है कि इसकी प्रमुख ज़िम्मेदार कार्बन डाई ऑक्साइड गैस है। कार्बन डाई ऑक्साइड गैस सूरज से आ रही गरमी को अपने अंदर सोख लेती है। पृथ्वी पर इस गैस की मात्रा वनॊं के जलने, बड़ी मात्रा में यातायात और जनसंख्या बढ़ने से लगातार बढ़ रही है। इस कारण पृथ्वी के वातावरण में गरमी सोखने की क्षमता भी लगातार बढ़ रही है। यही कारण है कि धरती गर्म हो रही है और वैश्विक तापन की विभीषिका से विश्व जूझ रहा है।
अमेरिका में वाशिंगटन स्थित ’बाईपार्टीसन शोध केन्द्र’ के इस दल ने सरकारों को सुझाव दिया है कि  वे अपने अपने देशों में पर्यावरण सुधार के लिये अतिवादी इंजीनियरिंग और तकनीक के विकास और क्रियान्वयन के लिये वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करें। एक समय तक ऐसा कहा जाता था कि अंतरिक्ष में सूरज से आ रही गर्मी को वापस अंतरिक्ष में भेजने के लिये बड़े-बड़े परावर्तक शीशे लगाने और वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड को पृथक करके कहीं इकट्ठा करके ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने और पृथ्वी को ठंडा करने की नौबत कभी नहीं आयेगी। न ही कभी धरती को हमारे रहने लायक बनाये रखने के लिये, धरती की सतह पर सूक्ष्म कणों को तितर-बितर करने और भूगर्भ-अभियान्त्रिकी जैसी कठिन और अत्याधिक मंहगी तकनीकों का सहारा करना पड़ेगा। लेकिन वैज्ञानिकों, अफ़सरों और राजनयिकों के 18 सदस्यों वाले दल के अनुसार अब इन अतिवादी तकनीकों का उपयोग शुरु कर देना चाहिये।
समूचे पृथ्वी ग्रह को अतिवादी कृत्रिम ढ़ंगों से अपने अनुसार बदलने को कुछ लोग अचम्भित कर देने वाला मानते हैं। इसी दल के एक सदस्य, हार्वर्ड और कैलगैरी विश्वविद्यालय के डेविड कीथ भी इसे अचम्भित करने वाला निर्णय मानते हैं। लारेन्स लिवरमोर नेशनल लैब की उपनिदेशक और इस दल की उप-प्रमुख  जेन लोंग इसे सामान्य मानतीं हैं वह कहती हैं कि मानव ने तेजी से बड़ी मात्रा में वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड गैस उत्सर्जित करके धरती से पहले ही खतरनाक छेड़छाड़ की है। उनके अनुसार अब हम इसे नज़रअंदाज़ करते हुये आगे नहीं बढ़ सकते। यह बात और है कि इस तरह की कृत्रिम छेड़्छाड़ हम अचानक कर रहे हैं और पृथ्वी इस छेड़छाड़ से परिचित नहीं है। वहीं, कुछ पर्यावरणविद इस तरह के निर्णयों को भ्रमित और खतरनाक मानते हैं।
पर्यावरण तापन से निबटने के लिये प्रयोग में लायी जाने वाली तथाकथित अतिवादी तकनीकों को दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहली तकनीक के अंतर्गत पृथ्वी पर अत्यधिक मात्रा में उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैस -कार्बन डाई ऑक्साइड को वातावरण से अलग करके बड़े बड़े पाइपों द्वारा भूगर्भ में इकट्ठा कर दिया जाये। इस तरह का भंडारण धरती के उन हिस्सों में किया जाता है जहाँ भूगर्भ में “बासाल्ट” नामक पदार्थ की चट्टानें होती हैं। ये चट्टानें कार्बन युक्त गैस से रासायनिक क्रिया करके चूना पत्थर में बदल जाती हैं। यह प्रक्रिया प्राकृतिक प्रकिया से एकदम मिलती जुलती है। अतः इस प्रयोग से भविष्य में बहुत बड़ी हानि या खतरे महसूस नहीं होते। यह कहना है स्टेन्फ़ोर्ड विश्वविद्यालय की पर्यावरणविद ’डॉ. केन काल्डेरिया’ का। आइसलैंड के ज्वालामुखी प्रभावित इलाके में वैज्ञानिकों की अंतर्राष्ट्रीय टीम इस तरह के कुछ प्रयोग ’कार्बफ़िक्स’ नाम से शुरु करने वाली है। जिसके तहत ज्वालामुखी के विस्फ़ोट से निकलने वाली गैसों से कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को अलग करके लम्बे पाइपों द्वारा भूगर्भ में उस स्थान पर भंडारित कर दिया जायेगा, जहाँ भूगर्भ में बासाल्ट पत्थर की चट्टानें हैं। ये बासाल्ट की चट्टानें गैस के कार्बन से रासायनिक अभिक्रिया करके चूना पत्थर बना देंगीं जो कि भविष्य में पूर्णतः हानिरहित होगा। इस तरह कार्बन उत्सर्जन को शून्य के स्तर लाने की योजना है।  
पर्यावरण सुधार से जुड़ी प्रस्तावित अतिवादी तकनीकों में से दूसरे प्रकार की तकनीकें विवादों के घेरे में हैं। इन तकनीकों में से एक तकनीक है, पृथ्वी के वातावरण के ऊपरी हिस्से में बड़े-बड़े परावर्तक शीशे लगाना। जिससे सूरज से आ रहा प्रकाश और गरमी इन विशालकाय शीशों से परावर्तित होकर वापस अंतरिक्ष में चली जाये। इसके साथ ही यह भी प्रस्ताव रखा गया है कि वातावरण में ऐसे सूक्ष्म कण कृत्रिम रूप से बिखेर दिये जायें जो कि प्रकाश के साथ आ रही गरमी को परावर्तित करें। इन्हीं तकनीकों में से एक है, कृत्रिम विधि से समुद्र में वाष्पन करके अधिक मात्रा में बादलों का निर्माण करना ताकि पृथ्वी को इन बादलों से ढ़ंका जा सके। इससे धरती ठंडी रहेगी और इसे वैश्विक तापन से बचाया जा सकेगा। मगर दूसरे प्रकार की ये सभी तकनीकें पृथ्वी की प्राकृतिक प्रकियाओं पर गम्भीर असर डाल सकतीं हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इन अतिवादी कृत्रिम तकनीकों के प्रयोग से घरती के आंतरिक तंत्र में गड़बड़ी आ सकती है क्योंकि ज़रूरी नहीं है कि धरती इस तरह के बदलावों के लिये तैयार हो। अमेरिकी विकास केंद्र के ’जोइ रोम’ का मानना भी यही है। उनके अनुसार वैज्ञानिकों, अफ़सरों और राजनेताओं के इस पैनल को इस तरह की अतिवादी कृत्रिम तकनीकॊं के तत्कालीन उपयोग के मशविरों को तुरन्त वापस ले लेना चाहिये। धरती के साथ इस तरह के प्रयोग अभी बहुत ही खतरनाक साबित हो सकते हैं क्योंकि इन प्रयोगों के परिणामों के बारे में अभी कोई भी कुछ नहीं जानता। वैज्ञानिक इन तकनीकों के विस्तृत परिणाम खोजने के के बाद ही इनका उपयोग बड़े पैमाने पर करने के पक्ष में हैं, ताकि कोई बड़ी समस्या का सामना न करना पड़े।

Thursday, October 20, 2011

ग्लोबल वॉर्मिंग समस्या के निदान के लिये महत्वाकाँक्षी प्रयोग

                                                                                               --मेहेर वान



      पिछले कुछ वर्षों में ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या ने विश्व स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है। जहाँ देशों की सरकारें और आम जनता भी अब ग्लोबल वॉर्मिंग के विषय के बारे में चिंतित नज़र आती हैं, वहीं विश्व भर के पर्यावरण वैज्ञानिकों ने भी जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों पर विशेष रूप से शोध कार्य शुरु कर दिया है। जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिये ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करनी बहुत ही आवश्यक है। वर्तमान परिस्थितियों में यह कार्य में बहुत ही कठिन है। ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन उत्सर्जन का सीधा सम्बन्ध उद्योग जगत से है। फ़्रिज़ और एयर कंडीशनर एक तबके के जीवन की महत्वपूर्ण ज़रूरतें बन चुके हैं। तमाम उद्योगों और आम जीवन के कई उपकरणों का उपयोग अब हम बन्द नहीं कर सकते। यही कारण है कि अमेरिका जैसे विकसित देश विकासशील देशों पर कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करने का दबाव बनाते रहते हैं। यह अलग बात है कि अब भी विकसित देशों की तुलना में विकासशील देश बहुत कम कार्बन उत्सर्जन करते हैं। इस दबाव के पीछे विकसित देश अक्सर यह दलील भी देते हैं कि विकसित देशों में जीवन स्तर इतना ऊँचा हो चुका है कि उनका कार्बन उत्सर्जन कम नहीं किया जा सकता। साथ ही विकसित देश जीवन स्तर भी कम नहीं करना चाहते। इस कारण कार्बन उत्सर्जन की मात्रा बहुत कम करके जलवायु परिवर्तन रोकने का सपना निकट भविष्य में पूरा नहीं हो सकता। अतः इन परिस्थितियों में ग्लोबल वार्मिंग पर पूरा नियंत्रण हो पाना भी असंभव सा है।
       अमेरिका की सहायता से आइसलैंड के वैज्ञानिकों का एक दल इस विडम्बना से निबटने की तैयारी में है। यह दल आइसलैंड में ही उन स्थानों पर कुछ परीक्षण कर रहा है, जहाँ पिछले साल फ़ूटे ज्वालामुखियों से निकली राख और हानिकारक गैसों की मात्रा बहुत अधिक है। आइसलैंड की राजधानी के पास में ही स्थित रेकजाविक भूतापीय ऊर्जा केन्द्र के आसपास यह प्रयोग किया जायेगा। इस प्रयोग में लगभग 11 मिलियन डॉलर का खर्च आने की सम्भावना है। यहाँ यह भी बताते चलें कि आइसलैंड देश में भूतापीय रियक्टर्स ऊर्जा के प्रमुख स्त्रोतों में से एक हैं। इस तरह से उत्पन्न हुयी ऊर्जा से कार्बन उत्सर्जन बहुत कम मात्रा में होता है। इस नवीनतम प्रयोग के बाद आइसलैंड कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने की दिशा में सशक्त कदम उठाने वाला प्रमुख देश बन जायेगा। इस प्रयोग को ”कार्बफ़िक्स” नाम दिया गया है।
इस प्रयोग कॊ वातावरण में कार्बन की मात्रा को नियंत्रित करने की दिशा में क्राँतिकारी प्रयास माना जा रहा है। 
      इस प्रयोग के तहत वैज्ञानिक वातावरण से कार्बन डाई आक्साइड जैसी महत्वपूर्ण ग्रीन हाउस गैस को वातावरण की तमाम गैसों से अलग करके कुछ लम्बे पाइपों की सहायता से भूगर्भ में हमेशा के लिये भंडारित कर देंगे। इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण भाग वातावरण की तमाम गैसों के मिश्रण से कार्बन डाई ऑक्साएड को अलग करना है, जिसके लिये वैज्ञानिक अत्यन्त आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करेंगे। कार्बन डाई ऑक्साइड गैस ग्लोबल वॉर्मिंग में सबसे खतरनाक गैस मानी जाती है, इसीलिये इसपर नियंत्रण पाने की दिशा में लगतार कदम उठाये जाते हैं। पृथक की गयी कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को लम्बे पाइपों के जरिये भूगर्भ में सोलह हज़ार फ़ीट नीचे ज़मीन के अन्दर पानी में मिलाकर इतनी ही गहराई में फ़ैलीं बासाल्ट की चट्टाअनों पर बिखेर दिया जायेगा।  कार्बन डाई ऑक्साइड और पानी मिलकर एक प्रकार ले अम्ल का निर्माण करते हैं जो को बासाल्ट पत्थर से रासायनिक अभिक्रिया करके चूना पत्थर बना देता है। खास बात यह है कि यह चूना पत्थर हानि रहित होता है और इसकी निर्माण प्रक्रिया पूर्णतः प्राकृतिक होती है। इस प्रयोग से धरती को कोई खतरा नहीं होना चाहिये, ऐसा वैज्ञानिकों का मानना है।
        हाँलाकि, इस क्राँतिकारी प्रयोग के परिणाम आने में अभी वक़्त लग जायेगा। मगर इस प्रयोग से जुडे वैज्ञानिकों का मानना है कि यह प्रयोग भविष्य में बहुत ही आसानी से और बहुत ही कम समय में पृथ्वी पर कार्बन की मात्रा को नियंत्रित कर देगा। अगले छः से बारह महीनों में लगभग दो हज़ार टन कार्बन डाई ऑक्साइड धरती के अन्दर भंडारित करके बासाल्ट से चूना पत्थर बनाने की योजना है। यह मात्रा कार्बन डाई ऑक्साइड की बहुत बड़ी मात्रा है, जो कि आइसलैंड के वातावरण में बहुत स्पष्ट परिवर्तन लायेगी। इस महत्वाकाँक्षी प्रोजेक्ट के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. सिगुर्दर गिस्लसन का कहना है कि यह यह प्रयोग छः से बारह महीनों तक चलेगा और इसके बाद ही हम इस प्रयोग के निष्कर्षों के बारे में कुछ कह पायेंगे। लेकिन यह हमारे लिये बहुत ही महत्वाकाँक्षी प्रोजेक्ट है और इसके ज़रिये हम युवा वैज्ञानिकों को अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल विश्व की चुनौतियों से निबटने के लिये करने का मौका देंगे।
      इस प्रयोग के बारे में कोलंबिया विश्वविद्यालय के डॉ. वैलेस ब्रोकर का कहना है, “हम चाहे पचास साल बाद कार्बन डाई ऑक्साइड गैस का भण्डारण करें, लेकिन हमें करना यही पड़ेगा। क्योंकि वर्तमान परिस्थियों में कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करना बहुत ही असंभव कार्य है”। इसी प्रोजेक्ट से सम्बन्धित द्ल के एक और सदस्य डॉ. बर्गर सिग्फ़ुसन कहते हैं कि यह पता करने में काफ़ी वक़्त लग जायेगा कि बासाल्ट की चट्टानों के ऊपर पानी और गैस का मिश्रण किस तरह फैला है, और यह किस हद तक रासायनिक अभिक्रिया करता है, मगर यह प्रक्रिया प्राकृतिक है, जिसके कोई नुकसान नज़र नहीं आते।
      इसके अलावा कुछ वैज्ञानिक इस तरह के प्रयोगों को अतिवादी प्रयोगों की संज्ञा देते हैं। इनका मानना है कि इस तरह के प्रयोग भले ही निकट भविष्य में हानि रहित प्रतीत होते हों परन्तु धरती इस तरह के भण्डारण और अचानक बदलावों के प्रति सावधान नहीं हैं। इस तरह के प्रयोगों का सबसे बड़ा खतरा यही है कि इन प्रयोगों के सम्भावित परिणामों के बारे में पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता। इन प्रश्नों के जबाब में कार्बफ़िक्स प्रयोग के एक वैज्ञानिक का कहना है कि कार्बन डाई आक्साइड गैस का पृथ्वी के अन्दर भण्डारण नया नहीं है, नॉर्वे की प्राकृतिक गैस की खदानों से उत्सर्जित कार्बन डाई ऑक्साइड पहले से ही उत्तरी सागर के पास कई सालों से भण्डारित की जा रही है।