Wednesday, April 25, 2012

गणित के जादूगर: श्रीनिवास रामानुजन

(आज महान भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन कि पुण्यतिथि है|  समययात्री इस महान व्यक्तित्व के बारे में जन्म से कहानियां सुनता चला आया है, और इन कहानियों से समययात्री भी हमेशा प्रभावित हुआ है| समय यात्री को एक महान गणितज्ञ को याद करते हुए गर्व महसूस हो रहा है....... )
            
            -मेहरबान राठौर

        श्रीनिवास रामानुजन विश्व के महानतम गणितज्ञों में गिने जाते हैं। अगर विश्लेषण किया जाये तो हम पायेंगे कि श्रीनिवास रामानुजन अल्बर्ट आइन्सटीन के स्तर के, अपने समय के सबसे अधिक प्रतिभावान लोगों में से एक थे। सामान्यतः महान लोग दो प्रकार के माने जा सकते हैं- एक तो ऐसे महान लोग कि अगर कोई व्यक्ति सामान्य से सौ गुना मेहनत करे तो उन लोगों जैसा महान व्यक्तित्व बन सकता है, लेकिन कुछ महान लोग जादूगरों की तरह होते हैं, उनके काम की प्रशंसा तो आप कर सकते हैं, मगर उन जैसा काम आप मेहनत के बल पर नहीं कर सकते। रामानुजन दूसरे तरह के महानतम व्यक्तित्वों में से ही एक थे। उनके लिखे कई सूत्र या प्रमेय आज भी हल नहीं किये जा सके है, या कहें कि उनकी उपपत्ति आज भी उपलब्ध नहीं है, मगर उन सूत्रों का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में बहुत सफ़लता के साथ हो रहा है। पूरी दुनिया के तमाम महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ रामानुजन के द्वारा लिखे गये सूत्रों पर आज भी गहन शोध कार्य कर रहे हैं।


        यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि भारत में यह वर्ष “राष्ट्रीय गणित वर्ष” के रूप में मनाया जा रहा है। चेन्नई में सम्पन्न हुयी राष्टीय विज्ञान काँग्रेस में प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन के जन्म के 125वें वर्ष को राष्ट्रीय गणित वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। यह सर्व विदित है कि श्रीनिवास रामानुजम का जन्म तमिलनाडु में इरोड में एक बहुत ही साधारण परिवार में 22 दिसम्बर, 1887 को हुआ था। अत्यन्त साधारण परिवार में जन्म लेने के बावजूद रामानुजम अद्वितीय प्रतिभा और तर्कशक्ति और सृजनात्मकता के धनी थे। रामानुजम बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के बालक थे और मद्रास विश्वविद्यालय से सन 1903 में उन्होंने दसवीं की परीक्षा कई पुरस्कारों के साथ पास की। हाई स्कूल के बाद ही उन्हें अत्यन्त प्रतिष्ठित “सुब्रयमण्यम छात्रवृत्ति” प्रदान की गयी जो कि उस समय गणित और अंग्रेजी के बहुत उत्कृष्ट छात्रों को दी जाती थी। उनका मन गणित की कठिन से कठिन समस्याओं को सुलझाने में खूब लगता था, और इसी कारण वे अन्य विषयों में उचित ध्यान न दे पाने की वजह से  ग्यारहवीं कक्षा में फेल हो गये। इसके बाद कुछ वर्षों तक वे ट्यूशन पढाकर और बही खाते लिखने और मिलाकर अपनी आजीविका चलाते रहे। 1906 में उन्होंने एक बार फिर मद्रास के पचियप्पा कॉलेज में ग्यारहवीं में प्रवेश लिया, और सन 1907 में उन्होंने बारहवी कक्षा की परीक्षा असंस्थागत विद्याथी के रुप में दी मगर पास नहीं हो पाये। इस तरह उनकी परंपरागत शिक्षा यहीं समाप्त हो गयी। ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं और कष्टों को लगातार झेलते हुये भी  उन्होंने गणित में अपना शोधकार्य सतत जारी रखा। रामानुजन का यह सफर अत्यन्त रोचक और प्रेरणादायी है।


          इसी बीच 14 जुलाई, 1909 को रामानुजम का विवाह कुंभकोणम के पास राजेन्द्रम गाँव के सम्भ्रान्त परिवार वाले श्री रंगास्वामी की पुत्री जानकीअम्मल से हो गयी। इसके बाद वे नौकरी की तलाश में निकल पडे।  बहुत प्रयास करने के बावजूद उन्हें सफलता नहीं मिली तो उन्होंने अपने रिश्तेदार और पुराने मित्रों से इस सम्बन्ध में मदद माँगी। वे अपने पूर्व शिक्षक प्रोफेसर अय्यर की सिफारिश पर नैल्लोर के तत्कालीन जिलाधीश श्री आर. रामचंद्र राव से मिले जो कि उस समय इंडियम मैथमैटिकल सोसाइटी के अध्यक्ष भी थे। आर. रामचंद्र राव ने रामानुजम की नोटबुक देखकर (जिसमें उन्होंने सूत्रों और प्रमेय लिखे थे जिनकी उपपत्ति उन्होंने स्वयं की थी) काफी सोच विचार करके रामानुजम के लिये पच्चीस रुपये प्रतिमाह की व्यवस्था कर दी थी। सन 1911, की शुरुआत से लगभग एक साल तक रामानुजम को यह पारितोषिक प्राप्त होता रहा। इसी साल रामानुजम का प्रथम शोध पत्र “जनरल ऑफ इंडियन मैथमेटिकल सोसाइटी” में प्रकाशित हुआ। इस शोध पत्र में उन्होंने बरनौली संख्याओं के बारे में अध्य्यन किया था और इस शोध पत्र का शीर्षक था- “बरनौली संख्याओं की कुछ विशेषतायें” [जनरल ऑफ इंडियन मैथमेटिकल सोसाइटी, वर्ष-3 पृष्ठ219-234]। एक वर्ष तक की अवधि वाले पारितोषिक के खत्म होने के बाद 1 मार्च 1912 को उन्होंने मद्रास पोर्ट ट्र्स्ट में क्लास 3, चतुर्थ ग्रेड के क्लर्क के बतौर मात्र तीस रुपये प्रति माह के वेतन पर नौकरी शुरु कर दी। मद्रास पोर्ट ट्रस्ट की नौकरी करते हुये रामानुजम ने विशुद्ध गणित के अनेक क्षेत्रों में स्वतंत्र रुप से शोध कार्य किया, इस प्रक्रिया में वे किसी की मदद नहीं लेते थे और न ही उन्हें  उत्कृष्ट किताबें उपलब्ध थीं। शायद, गणित में शोध कार्य वे स्वांत सुखाय करते थे, उन्हें गणित के सूत्र हल करने में आन्तरिक आनन्द की प्राप्ति होती थी। रामानुजन ने एक बार कहा था, “यदि कोई गणितीय समीकरण अथवा सूत्र किसी भगवत विचार से मुझे नहीं भर देता तो वह मेरे लिये निरर्थक है।” रामानुजन सामान्यतः स्लेट और चॉक के साथ समीकरणों और सूत्रों का हल करते और जो निश्कर्ष निकलकर सामने आते उन्हें वे अपनी एक नोटबुक में लिख लेते थे। ऐसा वे शायद इस लिये करते थे क्यों कि उनके पास कागज और पेन की सहायता से शोध करने के लिये पर्याप्त धन की कमी थी। हालाँकि मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में उनके पास जो काम होता था उसे वे अपनी गणितीय क्षमताओं के बल पर बहुत ही कम समय में पूरा कर देते थे और बाकी समय में कार्यालय के खराब कागजों पर सूत्र हल किया करते थे। 

      मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में रामानुजन के अधिकारियों का रवैया बहुत ही सौहार्द पूर्ण था, वे रामानुजन की गणितीय क्षमताओं के प्रशंसक थे और चाहते थे कि रामानुजन गणित के क्षेत्र में अपना कार्य जारी रखें। रामचन्द्र राव भी रामानुजन का पूरा ध्यान रखते थे। उनके ही कहने पर मद्रास इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर सी.एल.टी. ग्रिफिथ ने रामानुजन के कार्य को विभिन्न प्रसिद्ध और जानकार गणितज्ञों के पास भेजा, जिनमें यूनीवर्सिटी कॉलेज लन्दन के प्रसिद्ध गणितज्ञ एम. जे. एम. हिल प्रमुख थे। प्रो. हिल ने रामानुजन को अपनी समझदारी और प्रस्तुतिकरण में सुधार के सम्बन्ध में कई बार बहुत अच्छे सुझाव दिये लेकिन उन्होंने रामानुजन को विशुद्ध गणित में शोध के क्षेत्र में स्थापित होने के लिये कोई अन्य महत्वपूर्ण प्रया नहीं किये।
          इसके बाद रामानुजन ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रमुख गणितज्ञों को पत्र लिखने शुरु किये और इन पत्रों के साथ अपने शोध कार्य के कुछ नमूने भी भेजे ताकि वे उनके कार्य का प्रथम दृष्टतया मूल्याँकन कर सकें। इसी बीच रामानुजन के ही एक पूर्व शिक्षक प्रो. शेषु अय्यर ने उन्हें प्रो.जी.एच. हार्डी को पत्र लिखने की सलाह दी। 16 जनवरी 1913 को पहली बार रामानुजन ने प्रो, हार्डी को पत्र लिखा और साथ में स्वयं द्वारा खोजी गयी प्रमेयों को भी अलग से संलग्न किया। संलग्न पृष्ठों में बीजगणित, त्रिकोंणमिति, और कैलकुलस की शब्दावली में अपने निश्कर्षों को लिखा था। रामनुजन ने प्रो. हार्डी को लगभग 120 प्रमेयों जो कि निश्चिततान्त्मक-समाकलन के मान निकालने, अनंत श्रेणियों के योग निकालने, श्रेणियों को समाकलनों से परिवर्तित करने, और इनका निकटतम मान निकालने आदि से सम्बन्धित थीं। प्रथमदृष्टतया प्रो. हार्डी को लगा कि कोई लडका शायद बडी बडी बातें कर रहा है, मगर चूंकि रामानुजन ने पत्र में अपनी प्रमेयों की उपपत्तियाँ नहीं लिखीं थी, अतः प्रो. हार्डी रामानुजन की प्रमेयों में उलझते चले गये, वे कुछ प्रमेयों के हल निकालने में असफल रहे, मगर उन्होंने पाया कि वे प्रमेय कई स्थानों पर प्रयोग करने पर सही सिद्ध होती थी। प्रो. हार्डी उस समय मात्र 35 वर्ष की आयु के होने के बावजूद इंग्लैड में गणित के क्षेत्र में नयी विचारधारा के प्रवर्तक के रुप में जाने जाते थे। इस प्रकार प्रो, हार्डी ने रामानुजन की प्रतिभा का लोहा माना और यह स्वीकार किया कि उन्हें पत्र लिखने वाला कोई साधारण लडका नहीं बल्कि असीम प्रतिभा का धनी गणितज्ञ है। इसके बाद प्रो. हार्डी ने रामानुजन को इंग्लैंड बुलाने के लिये निमंत्रण भी भेजा मगर रामानुजन उस समय विदेश जाने को तैयार नहीं हुये। इसी बीच उनका प्रो. हार्डी के साथ पत्र व्यवहार चलता रहा। 


          रामानुजन व्यक्तिगत कारणों से विदेश नहीं जाना चाह रहे थे, मगर बाद में 22 जनवरी, 1914 को प्रो.हार्डी को लिखे पत्र में वे इंग्लैड जाने के लिये सहमत हो गये।रामानुजन के इंग्लैंड जाने के लिये सहमत होने के पीछे भी एक कहानी प्रचलित है, जो कि लोगों में काफी प्रसिद्ध भी है। 17 मार्च, 1914 को वह समुद्री जहाज से इंग्लैडके लिये रवाना हो गये। तब तक रामानुजन गणितज्ञ के रुप में काफी प्रसिद्ध हो गये थे, और उन्हें जहाज पर छोडने आने वालों में कई गणमान्य लोग आये थे। 14 अप्रैल को वह टेम्स नदी के किनारे इंग्लैंड पहुंच गये, और अप्रैल के महीने में  ही कैम्ब्रिज में प्रो. हार्डी से मिलकर शोधकार्य शुरु कर दिया। यहाँ उन्होंने गणित के सिद्धान्तों को और अच्छी तरह से समझने के लिये कुछ अच्छे प्रोफेसरों की कक्षाओं में जाना शुरु कर दिया। धीरे धीरे रामानुजन ने अपनी प्रतिभा से सबको प्रभावित करना शुरु किया। मार्च 1916 में उन्हें कैन्ब्रिज विश्वविद्यालय के द्वारा अपने 62 पृष्ठों वाले अंग्रेजी में प्रकाशित शोध लेख “हाईली कम्पोजिट नम्बर्स” के आधार पर बी.ए. (शोध के द्वारा) की उपाधि दी गयी। सन 1915 से 1918 तक उन्होंने कई शोध पत्र लिखे। 6 दिसम्बर, 1917 को रामानुजन प्रो. हार्डी के प्रयासों से लंदन मैथमेटिकल सोसाइटी में चुन लिये गये। । इसके बाद, मई 1918 में रामानुजन को “रॉयल सोसाइटी ऑफ लन्दन” का फेलो चुन लिया गया। यह किसी भारतीय के लिये बहुत ही सम्मान की बात थी। इस बीच रामानुजन का स्वास्थ्य लगातार गिरता चला गया था। इन सम्मानों के कारण रामानुजन के उत्साह में पुनः परिवर्तन आया और उन्होंने प्रो. हार्डी को कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष भेजे। इसके बाद उनका एक शोध पत्र “सम प्रोपरटीज ऑफ पी(एन), द नम्बर ऑफ पार्टीशन्स ऑफ ’एन’ प्रोसीडिंग्स ऑफ द कैम्ब्रिज फिलोसोफ़िकल सोसाइटी के सन 1919 के अंक में भी प्रकाशित हुआ। इसके तुरंत बाद, इसी वर्ष एक और शोध पत्र “प्रूफ ऑफ़ सर्टेन आइडेंटिटीज इन कंबीनेटोरियल एनालिसिस” भी इसी शोध जर्नल में प्रकाशित हुआ। इसके अलावा उनके दो महत्वपूर्ण शोध पत्र और प्रकाशित हुये जिनमें उन्होंने पार्टिशन फलनों और प्रथम एवं द्वितीय रोजर-रामानुजन के बीच सम्बन्ध स्थापित किये थे। 27 मार्च, 1919 को रामानुजन बम्बई आ गए। अपने चार साल के अल्प प्रवास में उन्होंने असाधारण उपलब्धियाँ प्राप्त कीं थी। उनके विशुद्ध गणित के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण शोध पत्र प्रकाशित हो चुके थे और कई फ़ेलोशिप्स भी उन्हें मिल चुकी थीं। सबसे महत्वपूर्ण उपाधि रॉयल सोसाइटी ऑफ लन्दन से उन्हें अपना फ़ेलो  (एफ.आर. एस.) चुना जाना था। चार साल के अल्प प्रवास में इतनी बडी उपलब्धियाँ कोई असाधारण ही प्राप्त कर सकता है।

         उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड रहा था, मगर वे लगातार गणित में शोध कार्य करते जा रहे थे। अपने अन्तिम समय में उन्होंने मॉक थीटा फलन और फाल्स थीटा फलन पर शोध कार्य किया जो कि उनका सबसे महत्वपूर्ण और विशिष्ट कार्य माना जाता है। 12 जनवरी, 1920 को उन्होंने प्रो. हार्डी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने उन्होंने कई निष्कर्ष भेजे। इन निष्कर्षों में 4 तीसरी श्रेणी के. 10 पाँचवी श्रेणी आदि ”मॉक थीटा फलन” के कई नये सूत्र थे। उनका मॉक थीटा और क्यू-सीरीज पर किया गया कार्य विस्तृत है, कुल मिलाकर इसमें 650 सूत्र हैं। 26 अप्रैल, 1920 को रामानुजन लम्बे समय तक खराब स्वास्थ्य के कारण सुबह ही अचेत हो गये और कुछ घन्टों बाद वह चिर निद्रा में सो गये।
          रामानुजन के सुत्रों पर विदेशों में उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के प्रतिभावान वैज्ञानिक शोध कार्य में लगे हुये है। रामानुजन को भौतिकी के अल्बर्ट आइन्स्टीन की कोटि का गणितज्ञ कहा जाना चाहिये, जिन्होंने गणित में बिना किसी औपचारिक शिक्षा के ग्रहण किये भी गणित के विकास की दिशा को न सिर्फ़ प्रभावित किया बल्कि नये आयाम दिये। रामानुजन भारतीय प्रतिभा के प्रतीक हैं और सिरमौर भी। उनके जन्म की 125वीं वर्षगाँठ को भारत “राष्ट्रीय गणित वर्ष” के रुप में मना रहा है। रामानुजन अपने शोध कार्य और गणितीय प्रतिभा के कारण अनन्त काल तक हमें प्रेरणा देते रहेंगे। 

Saturday, April 14, 2012

विदेशों में बढ़ रहा है आयुर्वेद का क्रेज़


        भारत में चिकित्सा के परंपरागत तरीकों के सम्बन्ध में लोग भले ही बहुत गम्भीर न हों, मगर भारत के बाहर कई देशों ने आयुर्वेद जैसी चिकित्सा पद्धतियों को बहुत उत्साह के साथ स्वीकार किया है। एलोपेथिक दवाइओं के लगातार बढ़ते साइड-इफ़ेक्ट्स के कारण लोगों का ध्यान चिकित्सा के परंपरागत तरीकों की ओर जाने लगा है। अब, भारत की आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के दीवाने विश्व भर के तमाम हिस्सों में देखने को मिल जाते हैं। आयुर्वेदिक दवाओं की ख़ास विशेषता यह है कि ये किन्हीं सिन्थेटिक रसायनों की मदद के बिना नेचर से सीधे प्राप्त करके बनाईं जाती हैं यह बिना खराब हुये बहुत अधिक दिनों तक इस्तेमाल के लायक रहतीं हैं और साथ ही इनके साइड इफ़्फ़ेक्ट्स भी नहीं होते। इसी तरह के कुछ कारणों से विदेशों में इंडिया की आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति धूम मचा रही है।
      
      भारत में परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों के सम्बन्ध में उतनी रिसर्च नहीं हुयी जितनी कि होनी चाहिये थी। ये पद्धतियाँ समय के साथ किये गये प्रयोगों और अनुभवों के आधार पर विकसित हुयी हैं, इस कारण हर दवा के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। कई बार मरीज़ों को इन पद्धतियों से आराम तो मिल जाता है लेकिन डॉक्टर्स और साइंटिस्ट आयुर्वेदिक दवाओं के प्रभाव के कारणों के बारे में नहीं समझ पाते। पिछले सौ सालों में डॉक्टरों और स्पेशलिस्टों ने आयुर्वेद में कम इन्टेरेस्ट दिखाया। इस कारण से यह परंपरागत चिकित्सा पद्धति धीरे धीरे चलन से बाहर हो गयी थी। मगर पिछले कुछ सालों में दुनियाँ भर के लोगों ने इनका इस्तेमाल करना शुरु किया है, और इन चिकित्सा पद्धतियों का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है।

        विदेशों में कई डॉक्टर आयुर्वेद में अपना इंटेरेस्ट दिखा रहे हैं। अर्जेन्टीना के डॉ. सर्गिओ सूरेज़ एक ऐसे स्पेशलिस्ट हैं, जिन्होंने अपना कैरियर आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के प्रचार-प्रसार और विकास में बनाया। डॉ. सर्गिओ का आयुर्वेद में इन्टेरेस्ट तब जागा, जब वह 1980 में इंडिया घूमने आये थे। उस समय लैटिन अमेरिका में आयुर्वेद को कोई नहीं जानता था। तीस साल के लम्बे संघर्ष में, डॉ. सर्गिओ ने आयुर्वेद को लैटिन अमेरिका में चर्चा का विषय बनाया है। वह आज भी सुबह जागने के बाद योगा और मेडीटेशन करते हैं। वे इंडियन फिलेसॉफ़ी के बहुत बड़े प्रशंसक हैं। सोलह साल तक डॉक्टरों और वैज्ञानिकों के बीच आयुर्वेद, योगा और मेडिटॆशन के बारे में जानकारियाँ देने के प्रयासों के साथ, डॉ. सर्गिओ अर्गेन्टीना के एक विश्वविद्यालय में आयुर्वेदिक मेडिसिन का डिपार्टमेंट शुरु कराने में कामयाब रहे। इसकी सफ़लता को देखते हुये, यूनीवर्सिटी ऑफ़ ब्यूनस आयर्स ने आयुर्वेद के कुछ कोर्स शुरु किये थे। इनके बाद कैथोलोक यूनीवर्सिटी और कॉर्डोबा यूनीवर्सिटी ने भी आयुर्वेद पर कई कोर्सेज़ शुरु किये, जिनकी अर्जेन्टीना के छात्रों में खासी लोकप्रियता है। डॉ. सर्गिओ ने अर्जेन्टीना में ही नहीं, बल्कि लैटिन अमेरिका के कई देशों में डॉक्टरों को आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की ट्रेनिंग दी। ब्राज़ील की हेल्थ मिनिस्ट्री ने डॉ. सर्गिओ को अपने देश में 350 डॉक्टरों के एक ग्रुप को आयुर्वेदिक चिकित्सा की ट्रेनिंग देने के लिये आमंत्रित किया था। डॉ. सर्गिओ ने ब्राज़ील के कई शहरों में जाकर ब्राज़ीलियन पुलिस को डिप्रेशन और टेन्शन से बचने के लिये योगा और मेडीटेशन की ट्रेनिंग दी। इन कार्यक्रमों से ब्राज़ील में भी आयुर्वेद चर्चित हो गया। इसके बाद, लैटिन अमेरिका के एक टीवी चैनल ने आयुर्वेदिक चिकित्सा, योगा और मेडिटेशन पर डॉ. सर्गिओ को लैक्चर देने के लिये आमंत्रित किया और इस तरह लैटिन अमेरिका में भारतीय चिकित्सा पद्धतियाँ काफ़ी चर्चित हुयीं। डॉ. सर्गिओ चाहते हैं कि अर्जेन्टीना और लैटिन अमेरिका में आयुर्वेद, योगा और मेडीटेशन को ऑफ़ीशियल और लीगल स्तर पर मान्यता मिले, और इसके लिये वह लगातार प्रयासरत हैं।

        अनुभवों और प्रयोगों के निष्कर्षों पर आधारित आयुर्वेद जैसी तमाम परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों के सम्बन्ध में हमें बहुत पहले ही गम्भीर रिसर्च शुरु करना चाहिये थी और इनके बेहतर पहलुओं का प्रचार-प्रसार करना चाहिये था। आशा है नयी जनरेशन यह अधूरा काम पूरा करेगी।